Sunday, November 18, 2018

एशिया पैसेफिक रीजन में अमेरिका और चाइना के बीच आर्थिक कोल्ड वार शुरू

    पापुआ न्यूगिनी में आयोजित एशिया पेसेफिक आर्थिक सम्मेलन 21 देशों की बैठक बिना किसी निर्णय के समाप्त हुई। कारण केवल अमेरिका और चीन की आपसी लड़ाई थी। दोनों देश इस क्षेत्र में अपना आर्थिक वर्चस्व कायम करना चाहते हैं। अमेरिका यहां अपना दबदबा को बरकरार रखना चाहता है तो चाइना अमेरिका के उस तिलिस्म को तोडऩा चाहता है जो सोवियत संघ के साथ कोल्ड वार की समाप्ति के बाद से यहां के अविकसित और आर्थिक रूप से कमजोर देशों में कायम है।
अमेरिका दुनिया का अकेला सुपर पॉवर है या कम से कम था। अब दुनिया में बहुध्रुवीय हो रही है और चीन एक नवोदित आर्थिक शक्ति के रूप में हर जगह अमेरिका को टक्कर दे रहा है। अमेरिका के पास सैन्य बल है और साथ ही पश्चिम के विकसित देशों का सहयोग। चीन के साथ उसका पुराना सांस्कृतिक इतिहास है और उसकी क्रांतिकारी युवा पीढ़ी का देश के प्रति प्रतिवद्घता। आज से 300 से 400 वर्ष पहले जब यूएसए का जन्म भी नहीं हुआ था उस समय चीन और भारत अंतरराष्ट्रीय व्यापार में सर्वोपरि थे और चीन संसार की सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति था। कालचक्र में पश्चिमी देशों ने अपने हथियारों के बल पर चीन और भारत की आर्थिक स्थिति को क्षतिग्रस्त कर दिया और एक जमाना ऐसा आया कि दोनों देश उपनिवेशवादी शक्तियों की जद में आ गये।
चीनी नेता सन्यातसेन ने पुर्नजागृति का बीड़ा उठाया और च्यांग काई शेक ने भी मंचूरिया में जापानी आक्रमण का मुकाबला किया। मोओत्से तुंग के कम्युनिस्ट क्रांति के बाद पश्चिमी देशों के सभी विरोध के बावजूद चीन आगे बढ़ता गया और आज आर्थिक और सामरिक दृष्टिकोंण से संसार की दूसरी बड़ी शक्ति है। चीन ने अपनी आर्थिक शक्ति का इस्तेमाल अपनी राजनीति के लिए करना शुरू किया है, जैसा सभी देश करते हैं। उसका बेल्ट एण्ड रोड इनीशिएटिव (बीआरआई) की एशियाई देशों के विकास के लिए महत्वपूर्ण भूमिका हो गई है।
यद्यपि चीन अब भी विकासशील देश है, लेकिन वह अपने संसाधनों का उपयोग दूसरे एशियाई देशों को अमेरिका के प्रभाव से दूर रखने के लिए बहुत होशियारी से कर रहा है। अमेरिका और यूरोप के देश भी इससे अनभिज्ञ नहीं है और वह भी हर तरह से चीन के इन कदमों का विरोध करते हैं। एशिया पैसेफिक के छोटे देशों में चीन ने विकास के लिए निवेश करना शुरू किया है। पश्चिमी देश इन देशों में निवेश के लिए बहुत शर्तें लगाया करते थे और इसी कारण कई छोटे देश चीन की तरफ जा रहे हैं। अमेरिका ने पहले ही ये धमकी दे रखी है कि वह किसी देश को सोवियत संघ की तरह एक मजबूत प्रतिद्वंदी के रूप में विकसित नहीं होने देगा। उसकी यह नीति चीन के मामले में सफल नहीं हो रही है। इसका एक कारण तो अमेरिकी नेताओं की गलत नीतियां हैं।
  शुरू से ही अमेरिका अविकसित और पिछड़े देशों में बड़े निवेश को हतोत्साहित करता रहा है। मिस्र ने जब असवान बांध के लिए पश्चिमी देशों से कर्ज मांगा तो उन्होंने मना कर दिया, फिर मजबूरन मिस्र को स्वेज कैनाल का राष्ट्रीयकरण करना पड़ा और सोवियत संघ की तरफ मदद के लिए हाथ बढ़ाना पड़ा। इसी पर ब्रिटेन, फ्रांस और इसरायल ने मिलकर मिस्र पर हमला कर दिया। यह कहानी बार-बार दोहरायी गई है। चीनी निवेश छोटे देशों पर एक बोझ अवश्य है, परन्तु पश्चिमी देश त्वरित गति से विकास के लिए बिना शर्त सहायता देने से कतराते हैं। अब उन्होंने यह कहना शुरू किया है कि चीनी निवेश से इन देशों की सार्वभौमिकता कमजोर होगी। अब तक इसका कोई सबूत नहीं है।
शी जिनपिंग ने अभी हाल में कहा है कि अमेरिका और चीन के इस युद्घ में किसी फायदा नहीं होने वाला है। सबसे बड़ा नुकसान विकासशील देशों का है, जिनके पास त्वरित विकास के लिए पूंजी नहीं है। कुछ देश यह भ्रम भी फैला रहे है कि चीन का लक्ष्य इन देशों के संसाधनों पर कब्जा करना है। यही बात अमेरिका उपराष्टï्रपति माइक पेंस ने पापुआ न्युगिनी की बैठक में भी कहा है।
यदि कोई देश अपने विकास के लिए चीनी संसाधन और चीनी निवेश चाहता है तो उससे किसी को कोई ऐतराज नहीं होना चाहिये। यदि किसी को ऐतराज हो तो वह उसे खुद आगे बढ़कर निवेश का एक बेहतर मॉडल पेश करना चाहिये। केवल चीन को भला-बुरा कहने और चीनी खतरे की बात करने से कोई फायदा नहीं है। यह हर देश का अपना निर्णय होगा कि वह विकास के किस मॉडल को अपनाता है।

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