इस समय देश की शीर्ष संस्थाओं और सरकार के बीच घमासान मचा हुआ है। पहले चुनाव आयोग, फिर सीबीआई और अब आरबीआई में आपसी विवाद और सरकार के स्तर पर अनावश्यक हस्तक्षेप से कोई अच्छी बात नही है। सच तो यह है कि इन संस्थाओं का आम आदमी के अन्दर एक अलग तरह की छवि है।
इससे पहले कभी इस तरह का दौर नहीं आया था, जब इस तरह की स्वायत्त संस्थाओं का सीधे सरकार से विवाद हो गया हो। अब से पहले कभी-कभार सर्वोच्च न्यायालय और केन्द्र सरकार के बीच कुछ मुद्दों को लेकर मनमुटाव सामने आता था तो सरकार जल्द ही उसका समाधान ढूंढ लेती थी और सरकार व सर्वोच्च न्यायालय की सर्वोच्चता बरकरार रही।
बात चुनाव आयोग की करें तो पहले प्रधानमंत्री मोदी जी की गुजरात रैली के चलते वहां विधानसभा चुनाव की घोषणा देर से किये जाने के आरोप लगे थे। ऐसे ही आरोप मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के चुनाव की घोषणा के वक्त भी लगाये गये, क्योंकि दिन में 12 बजे पूरी तैयारी हो जाने के बाद भी चुनावों की घोषणा तीन बजे तक रोक दी गई थी। आरोप यह है कि मोदी जी की अजमेर रैली को देखते हुए चुनाव आयोग ने ऐसा निर्णय लिया। मोदी जी की रैली 12 बजे से 2 बजे तक होनी नियत की गई थी। चुनाव आयोग पर ईवीएम को लेकर भी बराबर आरोप लगते रहे हैं।
सीबीआई में विवाद कोर्ट तक पहुंच गया है। इस विवाद की जड़ में भी बेवजह का सरकारी हस्तक्षेप बताया जा रहा है। बताते हैं कि सरकार ने सीबीआई में अपने अधिकारों का दुरूपयोग करके एक चहेते गुजरात कैडर के आईपीएस अधिकारी राकेश अस्थाना की नियुक्ति कर दी थी, जिससे सीबीआई निदेशक आलोक वर्मा शुरू से ही नाराजगी जताई थी। श्री वर्मा के अनुसार दागदार दामन वाले अस्थाना की नियुक्ति सीबीआई के लिए सही नहीं है। परिणामस्वरूप अब विवाद सतह पर आ चुका है और दोनों अधिकारियों को लंबे अवकाश पर भेज दिया गया है। फिर भी यह मामला अभी शांत नहीं होने वाला है, क्योंकि दोनों अधिकारियों ने कोर्ट की शरण ले ली है।
अब भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) और केंद्र सरकार के बीच बढ़ता मतभेद दुर्भाग्यपूर्ण है। समय रहते इसे सुलझा लेने की जरूरत है। दोनों के बीच असहमति उस वक्त उजागर हुई जब आरबीआई के डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य ने मुंबई में अपने एक वक्तव्य में कहा कि केंद्रीय बैंक की स्वायत्तता कमजोर पड़ी तो उसके खतरनाक परिणाम सामने आएंगे। इससे कैपिटल मार्केट्स में संकट खड़ा हो सकता है, जहां से सरकार भी कर्ज लेती है। आचार्य के वक्तव्य के बाद ऐसी कई बातें सामने आ गई है कि आरबीआई और सरकार में कई मुद्दों पर तकरार है। सरकार रिजर्व बैंक के खजाने से ज्यादा पैसा चाहती है, जो उसको मंजूर नहीं है। आरोप तो यहां तक लगे हैं कि सरकार ने आरबीआई से 3.6 लाख करोड़ रूपये की मांग की है। हालांकि इन आरोपों की सफाई में कल वित्त मंत्रालय के आर्थिक मामलों के सचिव ने ऐसे किसी मांग से इनकार किया है। वैसे इस तरह के मतभेद हर जगह उठते रहते हैं और इन्हें आपसी संवाद से दूर किया जा सकता है। यह टकराव आगे क्या रूप लेगा, कहना कठिन है। रिजर्व बैंक का गठन सरकार का मार्गनिर्देशन करने और उसके मनमानेपन पर अंकुश लगाने के लिए किया गया है, न कि उसके पीछे-पीछे चलने के लिए। आरबीआई पर विश्वास से लोग कहीं भी पूंजी लगाने में हिचकते नहीं और पूंजीगत किसी भी मामले में कोई भी निर्णय लोग बिना किसी चिंता के ले लेते हैं, क्योंकि उन्हें पता है कि उनके साथ आरबीआई की गारण्टी है।
स्पष्टï है कि सभी स्वायत्त संस्थाओं के कार्य तय हैं। ये संस्थाएं एक-दूसरे की मनमानी पर अंकुश लगाने का कार्य करती हैं। ये लोकतंत्र के असली नुमाइंदे हैं और इन पर दाग लगना किसी भी कीमत पर अच्छा नहीं कहा जा सकता।
इससे पहले कभी इस तरह का दौर नहीं आया था, जब इस तरह की स्वायत्त संस्थाओं का सीधे सरकार से विवाद हो गया हो। अब से पहले कभी-कभार सर्वोच्च न्यायालय और केन्द्र सरकार के बीच कुछ मुद्दों को लेकर मनमुटाव सामने आता था तो सरकार जल्द ही उसका समाधान ढूंढ लेती थी और सरकार व सर्वोच्च न्यायालय की सर्वोच्चता बरकरार रही।
बात चुनाव आयोग की करें तो पहले प्रधानमंत्री मोदी जी की गुजरात रैली के चलते वहां विधानसभा चुनाव की घोषणा देर से किये जाने के आरोप लगे थे। ऐसे ही आरोप मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के चुनाव की घोषणा के वक्त भी लगाये गये, क्योंकि दिन में 12 बजे पूरी तैयारी हो जाने के बाद भी चुनावों की घोषणा तीन बजे तक रोक दी गई थी। आरोप यह है कि मोदी जी की अजमेर रैली को देखते हुए चुनाव आयोग ने ऐसा निर्णय लिया। मोदी जी की रैली 12 बजे से 2 बजे तक होनी नियत की गई थी। चुनाव आयोग पर ईवीएम को लेकर भी बराबर आरोप लगते रहे हैं।
सीबीआई में विवाद कोर्ट तक पहुंच गया है। इस विवाद की जड़ में भी बेवजह का सरकारी हस्तक्षेप बताया जा रहा है। बताते हैं कि सरकार ने सीबीआई में अपने अधिकारों का दुरूपयोग करके एक चहेते गुजरात कैडर के आईपीएस अधिकारी राकेश अस्थाना की नियुक्ति कर दी थी, जिससे सीबीआई निदेशक आलोक वर्मा शुरू से ही नाराजगी जताई थी। श्री वर्मा के अनुसार दागदार दामन वाले अस्थाना की नियुक्ति सीबीआई के लिए सही नहीं है। परिणामस्वरूप अब विवाद सतह पर आ चुका है और दोनों अधिकारियों को लंबे अवकाश पर भेज दिया गया है। फिर भी यह मामला अभी शांत नहीं होने वाला है, क्योंकि दोनों अधिकारियों ने कोर्ट की शरण ले ली है।
अब भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) और केंद्र सरकार के बीच बढ़ता मतभेद दुर्भाग्यपूर्ण है। समय रहते इसे सुलझा लेने की जरूरत है। दोनों के बीच असहमति उस वक्त उजागर हुई जब आरबीआई के डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य ने मुंबई में अपने एक वक्तव्य में कहा कि केंद्रीय बैंक की स्वायत्तता कमजोर पड़ी तो उसके खतरनाक परिणाम सामने आएंगे। इससे कैपिटल मार्केट्स में संकट खड़ा हो सकता है, जहां से सरकार भी कर्ज लेती है। आचार्य के वक्तव्य के बाद ऐसी कई बातें सामने आ गई है कि आरबीआई और सरकार में कई मुद्दों पर तकरार है। सरकार रिजर्व बैंक के खजाने से ज्यादा पैसा चाहती है, जो उसको मंजूर नहीं है। आरोप तो यहां तक लगे हैं कि सरकार ने आरबीआई से 3.6 लाख करोड़ रूपये की मांग की है। हालांकि इन आरोपों की सफाई में कल वित्त मंत्रालय के आर्थिक मामलों के सचिव ने ऐसे किसी मांग से इनकार किया है। वैसे इस तरह के मतभेद हर जगह उठते रहते हैं और इन्हें आपसी संवाद से दूर किया जा सकता है। यह टकराव आगे क्या रूप लेगा, कहना कठिन है। रिजर्व बैंक का गठन सरकार का मार्गनिर्देशन करने और उसके मनमानेपन पर अंकुश लगाने के लिए किया गया है, न कि उसके पीछे-पीछे चलने के लिए। आरबीआई पर विश्वास से लोग कहीं भी पूंजी लगाने में हिचकते नहीं और पूंजीगत किसी भी मामले में कोई भी निर्णय लोग बिना किसी चिंता के ले लेते हैं, क्योंकि उन्हें पता है कि उनके साथ आरबीआई की गारण्टी है।
स्पष्टï है कि सभी स्वायत्त संस्थाओं के कार्य तय हैं। ये संस्थाएं एक-दूसरे की मनमानी पर अंकुश लगाने का कार्य करती हैं। ये लोकतंत्र के असली नुमाइंदे हैं और इन पर दाग लगना किसी भी कीमत पर अच्छा नहीं कहा जा सकता।
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