Tuesday, November 19, 2019

अयोध्या मामले पर मुस्लिम लॉ बोर्ड की प्रतिक्रिया (सम्पादकीय)

प्रो. मंज़ूर अहमद (प्रधान संपादक)

बीते 9 नवम्बर को राम जन्मभूमि और मस्जिद के बारे में उच्चतम न्यायालय की पांच जजों की संविधान पीठ से फैसला आने के बाद लोगों ने राहत की सांस ली थी। बहुत वर्षों से समाज के दो समुदायों में जारी एक विवाद का अंत होते लोग देख रहे थे। दोनों तरफ के पक्षकारों ने फैसले के बाद नफा-नुकसान पर ध्यान न देते हुए सामाजिक भाईचारे को तरजीह देते हुए मामले का समाधान के लिए सहयोग देने की बात कही।
उच्चतम न्यायालय ने अपने फैसले में विवादित जमीन को रामलला विराजमान तथा मस्जिद के लिए अलग से पांच एकड़ जमीन यूपी सुन्नी सेन्ट्रल वक्फ बोर्ड को देने की बात कही है। आम मुसलमानों में मस्जिद के लिए जमीन लेने का स्वागत नहीं है। उनका विचार है कि यदि अयोध्या में नई मस्जिद बनाने की आवश्यकता हो तो जमीन खरीदकर ऐसा किया जा सकता है। अब आल इंडियन मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने कल की बैठक में इस फैसले पर रिव्यू पिटीशन दाखिल करने का निर्णय लिया है। कानून के जानकार बोर्ड के इस निर्णय से हैरान है। दिल्ली हाईकोर्ट के जस्टिस सुहैल सिदï्दीकी ने सही कहा है कि इस तरह के कार्यों से न्यायालय के फैसले को कार्यरूप देने में सिवाय देरी होने को और कुछ नहीं हासिल होने वाला है। सही बात तो यह है कि न्यायालय का यह फैसला पांच जजों की संविधान पीठ ने दिया है। यह भी सही है कि फैसले को सर्वसम्मति से दिया गया। यदि इसमें बहुमत का फैसला होता तो रिव्यू पिटीशन के लिए मौके होते, परन्तु अब इससे कोई फायदा निकलना मुमकिन नहीं लगता। इसे तो केवल दो पक्षों में झगड़ों को पुन: तूल देने के रूप में देखा जा सकता है।
जैसा कि हमने फैसले के तुरन्त बाद लिखा था कि मुसलमानोंं ने अपना मुकदमा ठीक से लड़ा और जो कुछ उनके बस में था, उन्होंने किया। कुरान में भी कहा गया है कि अल्लाह किसी पर उसकी क्षमता से बड़ा बोझ नहीं डालता, जितना वह उठा नहीं सके। मुसलमानों ने अपनी मस्जिद बचाने के लिए अपने शक्ति भर प्रयास किया और इससे ज्यादा कुछ नहीं कर सकते थे। असल समस्या राजनीति में उनके संदर्भित रहने की है और वह प्रयास जारी रहना चाहिये तथा वह अपनी आर्थिक और सामाजिक स्थिति को मजबूत करने का प्रयास करते रहें। मुसलमानों को राजनीतिक भटकाव में नहीं पडऩा चाहिये, क्योंकि इससे उनको हासिल तो कुछ नहीं होता, बस राजनीतिक फायदे के लिए उनका इस्तेमाल ही होता है।
1986 में शाहबानों मुकदमें के फैसले के बाद अयोध्या का मामला बड़े रूप में सामने आया। उसके पहले आम लोगों को मालूम भी नहीं था कि अयोध्या में कोई मस्जिद का झगड़ा है। तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के मामा एवं सलाहकार अरूण नेहरू ने ताला खुलवाकर इस मामले को अपने पक्ष में इस्तेमाल करने का प्रयास किया और उसके बदले में शाहबानो मुकदमें में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को बदलते हुए नया कानून लाने का काम किया। बहुत लोगो का विचार था कि यह कार्य आपस में संबंधित थे। मुसलमानों के पक्ष को शंका थी कि कुछ मुस्लिम धार्मिक नेताओं ने नान नफ्का देने से बचने के लिए सिजदागाह का सौदा किया। इस कार्य में उन्हें यह लगा कि मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के कुछ लोग भी शामिल थे। शाहबानों मुकदमें में सुप्रीम कोर्ट ने असल मामले से हटकर मुसलमानों के कानून के बारे में जो कुछ अनावश्यक टिप्पणियां (Obiter Dicta)  की थी, उससे मुस्लिम समाज में एक भावनात्मक प्रतिक्रिया हुई थी और लोगों का ध्यान मूल मुद्दे से हट गया था। अब भी कुछ लोग पर्सनल लॉ बोर्ड की भूमिका से सशंकित है।

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