प्रोफेसर मंजूर अहमद (सेवानिवृत आईपीएस)
पूर्व कुलपति, डॉ. भीमराव अम्बेडकर विश्वविद्यालय, आगरा
म्यांमार में स्थिति बहुत गंभीर हो रही है। फौज ने अब लोगों को दुश्मन की तरह मारना शुरू कर दिया है। तख्तापलट के बाद शुरू के दो दिनों में आंदोलनकारियों को विरोध-प्रदर्शन की थोड़ी आजादी थी, परन्तु फिर फौज ने अपने गुण्डे भेजकर लोगों पर हमला कराना शुरू किया और अब फौज खुद लोगों पर फायरिंग कर रही है, जिससे लोग बड़ी संख्या मे हताहत हो रहे है। जाहिर है कि ऐसी स्थिति में आम जनता बहुत दिनों तक नहीं लड़ सकती।
फौज की यह बेरहमी कोई नई नहीं है। अभी पांच साल पहले इसी फौज ने राखिने प्रांत में सैकड़ों गांवों को जला दिया था। अब चिन प्रांत में ईसाई अल्पसंख्यकों के साथ ज्यादती हो रही है और चिन लोगों ने अपनी गुरिल्ला फौज बनाकर म्यांमार की फौज से लडऩा शुरू कर दिया है। ऐसे कई राज्यों में यही हालत है और कभी किसी ने फौज की ज्यादती के खिलाफ आवाज नहीं उठायी।
एक जर्मन चिंतक ने एक बार कहा था कि जब नाजी लोग कम्युनिस्टों को पकडऩे आये तो मै नहीं बोला, क्योंकि मै कम्युनिस्ट नहीं था। जब वे ट्रेड यूनियनिस्ट को पकडऩे आये तो मै चुप था कि क्योंकि मैं ट्रेड यूनियनिस्ट नहीं था। फिर जब वे यहूदियों को पकडऩे आये, तब मै चुप रहा, क्योंकि मै यहूदी नहीं था और जब वे मुझे पकडऩे आये तो मुझे बचाने वाले वाला कोई नहीं था। इस कथानक का अर्थ यह है कि जब भी कहीं ज्यादती हो तो सबको मिलकर उसका विरोध करना चाहिये। जब रोहिंग्या के ऊपर ज्यादती हो रही थी, तब सू की चुप रहीं और कई मौकों पर फौजी कार्यवाही का बचाव किया। आज कल बौद्घिस्ट लामा फौज के खिलाफ बोल रहे हैं, परन्तु रोहिंग्या और अन्य अल्पसंख्यक समूहों के विरूद्घ फौजी कार्यवाही को उन्होंने मजबूत समर्थन दिया। यदि म्यांमार के लोग शुरू से इन ज्यादतियों के विरूद्घ आवाज बुलंद करते तो फौज की आम लोगों के साथ इतनी ज्यादती की हिम्मत नहीं होती।
म्यांमार के विरूद्घ सारी दुनिया खड़ी हो रही है। संयुक्त राष्टï्र संघ में म्यांमार के प्रतिनिधि ने फौजी शासन के खिलाफ जनता का मजबूत पक्ष रखा है। अमेरिका ने फौज के अधिकारियों पर पाबंदी लगायी है और म्यांमार की पूरी फौज को आतंकी संगठन घोषित कर दिया। ऐसा इतिहास में बहुत कम हुआ।
वे देश जो म्यांमार के साथ वाणिज्य संबंध रखते थे, उन्होंने भी हाथ खींचना शुरू कर दिया। म्यांमार में सबसे अधिक निवेश सिंगापुर का था, दो दिन पहले सिंगापुर ने घोषणा कर दी है कि अब वह इन हालातों में म्यांमार से कोई संबंध नहीं रखेगा। भारत ने भी प्रजातंत्र के खिलाफ इस खुली कार्रवाई की निन्दा की है और उसने भी इन जनरलों के बचाव से अपने को दूर रखा। ले देकर अब केवल चीन बचा है, जो अब भी म्यांमार के हालात को उसका आंतरिक मामला कहकर चुप है। चीन में प्रजातांत्रिक मूल्यों की कोई बुनियाद नहीं है, इसलिए उसका बर्ताव समझ में आता है, परन्तु म्यांमार के हर तरफ पड़ोसी देश इस सैनिक शासन के विरूद्घ हैं। म्यांमार पर लगायी गई पाबंदियों का कुप्रभाव सबसे ज्यादा आम लोगों पर ही होगा, यह भी एक दुखद सत्य है। जितनी जल्दी इस फौजी शासन का अंत हो, उतनी जल्दी म्यांमार के लोगों का जीवन आसान होगा। परन्तु इस पूरी घटना से यह सबक मिलता है कि अपनी आजादी की रक्षा के लिए नागरिकों को हर समय सचेत रहना चाहिये और किसी के साथ भी ज्यादती हो तो उसका विरोध करना चाहिये।
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