Thursday, September 20, 2018

मुहर्रम स्पेशल

इमाम हुसैन ने सारी दुनिया को सच्चाई के लिए लडऩे की हिम्मत दी

  इस्लाम में निरंकुश बादशाहत के लिए कोई स्थान नहीं है और कुरान में खुले शब्दों में बादशाहत की निन्दा की गई है और कहा गया है कि लोग अपने मामलात आपसी मश्विरे से ही तय किया करे। परन्तु हजरत अली की शहादत के बाद बनुउमैया ने बादशाहत कायम की और अमीर मुआबिया ने अपने बेटे यजीद को अपना जानशीन और बादशाह घोषित किया। यह बात इस्लामी सिद्घांतों के विरूद्घ थी।
  यजीद इस्लाम के नैतिक मूल्यों के विरूद्घ काम करता था और जो चीजें वर्जित थी, उनको उसने अपना लिया था। उसने हिंसा के रास्ते से लोगों को खामोश कर दिया था। यदि इस्लाम के नैतिक, धार्मिक और सामाजिक मूल्यों को बचाना था तो इसके लिए एक बड़ी कुरबानी की जरूरत थी। संसार के शहीदों के सरदार ईमाम हुसैन ने यह कुरबानी देना कबूल किया और कर्बला के मैदान में उनके परिवार और दोस्तों को जिनकी संख्या 72 है, तपती रेत पर मौत की नींद सुला दिया गया। यजीद ने अपनी फौज को आदेश दिया था कि यदि हुसैन उसकी बादशाहत को मानने के लिए तैयार न हो तो उनकी हत्या जहां पाया जाये, वहीं कर दी जाये। ईमाम हुसैन ने सिर देना कबूल किया, लेकिन यजीद के हाथ में अपना हाथ देने से मना कर दिया। इस कुरबानी में 6 महीने के बच्चे से लेकर बूढ़े साथी तक शामिल थे। यह ईमाम हुसैन की शहादत ही थी, जिसने नैतिक मूल्यों को जिन्दा रखा और इस्लाम कायम रहा।
 ऐसा नहीं है कि संसार से यजीदियत समाप्त हो गई है, परन्तु अब कोई यजीदियत को कबूल करने के लिए तैयार नहीं है। हिन्दुस्तान में सुन्नियों के सबसे मशहूर संत ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती अजमेरी ने कहा था कि 'दीनअस्त हुसैन दीन पनाह अस्त हुसैनÓ। उन्होंने आगे कहा था कि कलमें की बुनियाद हुसैन द्वारा दी गई यह कुरबानी बनी। कर्बला की तपती रेत पर हुसैन ने 'ला इलाहÓ अपने खून से लिख दिया, जो रहती दुनिया तक कायम रहेगा।
 आज का दिन हुसैन की उसी कुरबानी की याद का दिन है। जोश मलीहाबादी ने कहा था कि 'इंसान को बेदार तो हो जाने दो, हर कौम पुकारेगी हमारे हैं हुसैन।
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