Friday, February 19, 2021

समाज को जीवन और प्रेम का आदर करना चाहिये


प्रोफेसर मंजूर अहमद (सेवानिवृत आईपीएस) 
पूर्व कुलपति, डॉ. भीमराव अम्बेडकर विश्वविद्यालय, आगरा

 हमारा समाज हिंसक हो रहा है और अब हम केवल अहिंसा परमो धर्म: का नारा लगाने वाले रह गये हैं, सच्चाई यह है कि हम अहिंसा का रास्ता छोड़ चुके हैं और सबसे ज्यादा तकलीफदेह बात परिवार में हिंसा और व्याभिचार की है। आजाद भारत में पहली बार एक स्त्री को फांसी की सजा दी जाने वाली है। वह शबनम नाम की स्त्री, जिसने अपने प्रेमी के साथ मिलकर पूरे परिवार की हत्या की और अपने छोटे से भतीजे को भी नहीं बख्शा। यह वीभत्स हत्याकांड था और इससे यह मालुम होता है कि परिवार के रिश्ते कितने कमजोर हो गये हैं। यदि इस स्त्री को अपने परिवार से इतनी ही दुश्मनी हो तो उसे अलग होने में कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिये।  उसी तरह और बहुत से मामलों में प्रेम संबंध के कारण हत्याएं हुई हैं और हो रही हैं। परिवार के बीच कुछ वर्जनाओं के कारण अविश्वास का भाव तेजी से पनपा है। इन कारणों का सामाजिक विश्लेषण बहुत जरूरी है। 

पहली बात तो यह है कि शादी और तलाक दोनों पर हमारी धारणाएं बदलनी चाहिये। युवाओं का अपनी मर्जी से शादी करना उनका हक है। हमने हर जगह इस पर पहरे बिठा रखे हैं। इस दौर में जब सूचना प्रौद्योगिकी इतनी बढ़ चुकी है तो हमारे पुराने सामाजिक मान्यताएं काम नहीं आने वाली। यदि हमने उनका पुनरीक्षण नहीं किया और अपने सामाजिक मूल्यों में कोई तब्दीली नहीं की तो यह बीमारी बहुत फैलने वाली है। वह स्त्री जिसकी फांसी होने वाली है, उसे अपने मनपसंद साथी चुनने में कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिये थी। उसके द्वारा की गयीं जघन्य हत्याएं परिवार और पे्रम के बीच तालमेल के की खाई को दर्शातें हैं। पश्चिमी देशों में जहां सूचना प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल लोग खूब करते हैं, वहां शादी और तलाक नितांत व्यक्तिगत मामले हैं, उन पर ज्यादा बहस नहीं होती। अमेरिकी राष्टï्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की कई शादियां थी और यही हाल फ्रांस के राष्टï्रपति इनैमुएल मैक्रां का भी है, लेकिन इसको लेकर कहीं कोई हंगामा नहीं है। मौजूदा दौर में यह सही भी है। यदि जीना मुश्किल हो तो जान लेने की जगह अलग होने का विकल्प हमेशा होना चाहिये। युवाओं और युवतियों में भी कभी जाति, कभी खाप के बंधन आगे आते रहते हैं। यदि लड़के और लड़कियां साथ पढ़ेंगे तो एक-दूसरे के प्रति आकर्षित होने से उन्हें कोई रोक नहीं सकता। यदि वे इसको शादी में बदलना चाहते हैं तो भी इसमें कोई रोक नहीं होनी चाहिये। महात्मा गांधी के परिवार के एक व्यक्ति ने उनके सामाजिक मूल्यों के विरूद्घ कहीं शादी करना चाहते थे। गांधी जी ने केवल यह कहा कि यह शादी तीन साल तक इंतजार करने के बाद करें। गांधी जी का ख्याल होगा कि यदि यह क्षणिक प्यार का मामला होगा तो तीन साल में खत्म हो जायेगा और यदि युवक व युवती तीन साल तक इंतजार करते हैं तो अवश्य ही मजबूत बंधन है। इस तरह का रूख समाज में होना चाहिये। इससे परिवार में आत्महत्या और हत्या की समस्या कम होगी। 

हमारी फिल्मों ने दो तरह से समस्याएं पैदा की है। एक तो वह बहुत ही हिंसक दृश्य दिखाते हैं और हमारी फिल्मों को देखने के बाद ऐसा लगता है कि हमारे समाज में कानून, पुलिस, अदालतों की कोई भूमिका नहीं है और हीरो अपना इंसाफ खुद ही बदला लेकर करता है। हमारा हीरो मारपीट में यकीन करता है और उसके इस कृत्य को लोग पसंद करते हैं। जाहिर है कि इससे समाज में हिंसा और बदला लेने की भावना बढ़ती है। दूसरा फिल्मों के द्वारा अश्लील दृश्य दिखाकर लड़के और लड़कियों की कामभावनाओं को बढ़ाते हैं। यही नहीं ऐसे दृश्य उन फिल्मों में भी होते हैं, जो परिवार के साथ बैठकर देखने के लिए बनती हैं। हमारे सेंसर बोर्ड को इस तरफ ध्यान देना चाहिये और सरकार को भी ऐसी फिल्मों को बढ़ावा देना चाहिये, जिनका आधार  सामाजिक मूल्य, शांति और प्रेम हो।

हमारे समाज में जीवन के प्रति इज्जत कम होती जा रही है। देखते हैं कि फिल्मों में लोग ऐसे मारे जाते हैं, जैसे कोई मच्छर मार रहा हो। जीवन की रक्षा एकबहुत अहम सामाजिक मूल्य है और इस पर भी फिल्म, शिक्षण संस्थाएं और परिवार तीनों की जिम्मेदारी है कि बच्चों में जीवन मात्र के लिए प्रतिबद्घता को जागृत करें।

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